योग-विद्या के आध्यात्मिक सिद्धान्तों एवं तकनिकी प्रावधानों की व्याख्या आधुनिक विज्ञान के सन्दर्भ में किया जाना अभिमत है। इससे सिद्ध होगा कि भारतीय विज्ञान आधुनिक विज्ञान की अपेक्षा कितना समुन्नत एवं उत्कृष्ट है।
The science of yoga
योग-विद्या का आध्यात्मिक-वैज्ञानिक अध्ययन
Tuesday, February 10, 2015
The science of yoga: योग-विद्या का सम्बन्ध ‘विज्ञान’ से
The science of yoga: योग-विद्या का सम्बन्ध ‘विज्ञान’ से: भारतीय ज्ञान-विज्ञान का आधार ‘वेद’ हैं, इसलिए भारतीय-विज्ञान को वैदिक-विज्ञान के नाम से जाना जाता है। विज्ञान शब्द में ‘वि’ एक ...
योग-विद्या का सम्बन्ध ‘विज्ञान’ से
भारतीय ज्ञान-विज्ञान का
आधार ‘वेद’ हैं, इसलिए भारतीय-विज्ञान को वैदिक-विज्ञान के नाम से जाना जाता है। विज्ञान
शब्द में ‘वि’ एक उपसर्ग है जिसका अर्थ है ‘विशेष’, इसलिए विज्ञान का स्वाभाविक
अर्थ है ‘विशेष-ज्ञान’। हमसब जब इस धरती (पृथ्वी) पर विचार करते हैं तो हमारी
इन्द्रियजनित अनुभूतियों के आधार पर लगता है कि हमारी धरती सपाट और चौरस है।
परन्तु, ‘वैज्ञानिक-ज्ञान’ बताता है कि यह धरती सपाट और चौरस नहीं, गोलाकार है। विज्ञान
ने इसे अवश्य ही प्रमाणित किया है, फिर भी सच तो यह है कि उसे भी यह धरती चौरस और
सपाट ही दीखती है। इसी प्रकार, हमें अपनी धरती स्थिर मालुम पड़ती है और यह लगता है
कि सूर्य धरती के चारों ओर चक्कर लगाता हुआ दिन-रात का नियमन करता रहता है।
वैज्ञानिक-ज्ञान बताता है कि हमारी धरती स्थिर नहीं है, क्योंकि वह अपनी धूरी पर
लट्टू की भाँति अपने ही चारों ओर घूम रही है और धरती की तुलना में सूर्य स्थिर है।
इसके पीछे कारण यह है कि हमारी अनुभूतियाँ इन्द्रियजनित
हैं। इन्द्रियाँ दस हैं—पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ। चक्षु
(आँख), कर्ण (कान), नासिका, जिह्वा और त्वचा, ये ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। हमारी ‘अनुभूतियाँ’
इन्हीं ज्ञानेन्द्रियों पर आधारित होती हैं, इसलिए इन अनुभूतियों को ‘इन्द्रियजनित-अनुभूति‘
कहा जा सकता है। हमारी अनुभूतियाँ इन्द्रियजनित हैं, इसलिए यह धरती हमें चौरस और
सपाट दीखती हैं—सूर्य धरती की परिक्रमा करता हुआ प्रतीत होता है।
लेकिन, वैज्ञानिक-ज्ञान इन इन्द्रियजनित-अनुभूतियों से परे
है। इससे यह स्पष्ट होता है कि ‘विज्ञान’ विशेष-ज्ञान
इसलिए है कि वह इन्द्रियजनित-अनुभूतियों से परे है। दूसरे शब्दों में ‘विज्ञान’ इन्द्रियातीत-ज्ञान है। यही वह वास्तविक कथ्य है जिसे वैदिक-ऋषि
बारम्बार कहते आ रहे हैं।
‘विज्ञान’ की साधना का
जो आधुनिक स्वरूप है, उसे विज्ञान की संज्ञा देने से बेहतर है कि ‘साईंस’ ही कहा
जाए। कारण यह है कि साईंस-वाले विद्वान कृत्रिम उपकरणों के माध्यम से इस
विशेष-विज्ञान का विस्तार करते हैं। वैदिक-ऋषियों ने उनसे भिन्न मार्ग का अवलम्बन
किया था।
वैदिक-ऋषियों यह जानने
का प्रयास किया कि क्या मनुष्य में इन्द्रियातीत-अनुभूतियाँ प्राप्त करने की क्षमता जगाई जा सकती हैॽ यहाँ हम इसका विश्लेषणात्मक
अध्ययन कर लेते हैं।
दृश्य अनुभूति की बात
करें तो यह सहज कहा जा सकता है कि जो वस्तु हमारे दृष्टि-पथ पर आती है उसकी
अनुभूति हमें आँखों के माध्यम से होती है। लेकिन, कभी-कभी स्थिति ऐसी भी हो जाती है
कि हमारा विचार कहीं और भटकता होता है और हमारे सामने आने वाली वस्तु भी हमें
दिखाई नहीं पड़ती। अर्थात्, हम किसी वस्तु को तभी देख पाते हैं जब उस पर हमारा ‘ध्यान’
जाता है। यही स्थति, श्रवण-अनुभूति के सन्दर्भ में भी कही जा सकती है। किसी आवाज
को हम तभी सुन पाते हैं जब हमारा ‘ध्यान’ उस पर जाता है। प्रश्न है कि यह ‘ध्यान’
क्या हैॽ आधुनिक मनोविज्ञान भी स्वीकार करता है कि यह ‘ध्यान’ मन (चित्त) द्वारा
निरूपित-शक्ति है। तात्पर्य यह है कि ‘मन’ की शक्ति है ‘ध्यान’ और हमारा ‘मन’ अपनी
इस शक्ति के माध्यम से ज्ञानेन्द्रियों समेत समस्त इन्द्रियों को नियन्त्रित करता है।
वैदिक-ऋषियों ने
इन्द्रियातीत-ज्ञान के लिए इस ‘मन’ (चित्त) को आधार बनाया और जिसकी परिकल्पना लोग ‘छठी-इन्द्रिय’
के रूप में करते हैं, वह ‘मन’ ही है। हमारे ऋषि बताते हैं कि यह ‘मन’ न केवल ‘इन्द्रियों’
का स्वामी है, बल्कि मस्तिष्क की बौद्धिक-क्षमता का भी स्वामी है। कारण यह है कि
अनुभूति का कारण केवल ‘इन्द्रियाँ’ ही नहीं, ‘मस्तिष्क’ भी है। अस्तु, इन्द्रियों
और मस्तिष्क के साथ ही साथ ‘मन’ की भी सत्ता है जो इन दोनों का नियन्त्रक है। इस ‘मन’
को ही ‘चित्त’ की भी संज्ञा दी गई है।
इस सन्दर्भ में यह बता
देना अनिवार्य है कि ‘साईँस’ की प्रयोगशालाओं में और उसके तकनिक के माध्यम से ‘मन’
की सत्ता को जानना अभी तक सम्भव नहीं हो
पाया है। इसके बावजूद आज का विज्ञान-आधारित मनोविज्ञान (psychology) भी ‘मन’
की सत्ता से इन्कार नहीं कर पाता, क्योंकि ‘ध्यान’ का मानवीय-प्रकृति में अनिवार्य
स्थान है।
भारतीय मनीषी बताते हैं
कि ‘मन’ इन्द्रियों और मस्तिष्क का नियन्त्रक है और ‘ध्यान’ उस ‘मन’ की शक्ति है,
इसलिए ध्यान को एकाग्र करके ‘मन’ को नियन्त्रित किया जा सकता है। यह नियन्त्रण
स्थापित होने पर ‘मन’ के माध्यम से ‘विशेष-ज्ञान’ अर्थात् ‘इन्द्रियातीत-अनुभूतियाँ’
प्राप्त करना सम्भव हो जाता है। ज्ञान-विज्ञान की साधना के लिए मन को नियन्त्रण
करने की विद्या को ही ‘योग-विद्या’ की संज्ञा दी गई है। इसी तथ्य को स्वीकार करते
हुए महर्षि पातंजलि अपने योग-दर्शन में ‘योगश्चित्तवृत्ति निरोधः‘ कहकर चित्त (मन) को योग-विद्या का मुख्य विषय माना है।
उपरोक्त विवरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि ‘ज्ञान’
को हम इन्द्रियों के माध्यम से नहीं जान पाते, उसे ‘मन’ के माध्यम से जाना जा सकता
है, क्योंकि वह मनुष्य की सर्वोपरि परन्तु इन्द्रिय है। इसलिए, योग-विद्या वैदिक-विज्ञान
की प्रमुख तकनिक है या कहें कि योग-विद्या का सम्बन्ध ‘विज्ञान’ (विशेष-ज्ञान) से
है।
रमाशंकर जमैयार,
85/41, वरूणपथ, मानसरोवर, जयपुर (राजस्थान)।
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