The science of yoga

योग-विद्या का आध्यात्मिक-वैज्ञानिक अध्ययन

Tuesday, August 30, 2011

चित्त की चंचलता कई विकृतियों का मौलिक कारण


      महर्षि पातंजलि के अनुसार योग-साधना के आठ अंग हैं—यम, नियम, आसान, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।
      अष्टांग योग का का पहला भाग है-यम। योगियों के आचरण लिए बनाये गये नियम ही यम हैं। ये हैं—(1)अहिंसा, (2)सत्य, (3)अस्तेय (चोरी न करना), (4)ब्रह्मचर्य और (5)अपरिग्रह (आवश्यकता से अधिक धन-संग्रह की वृत्ति पर रोक)। यहाँ यह नहीं मान बैठना चाहिए कि योगी को पहले इन नियमों का पालन करना चाहिए, तभी योग का साधना का आरम्भ करना चाहिए। हम पूर्व में ही बता चुके हैं कि योग स्थिरता से एवं धीरे-धीरे आगे बढ़ने की विद्या है। जैसे-जैसे इस साधना में व्यक्ति आगे बढ़ता जाता है, यम के नियमों के पालन की वृत्ति स्वतः जाग्रत होती जाती है।
      इन नियमों से पूरा समाज प्रभावित होता है, इसलिए हम यह कह सकते हैं कि समाज का हर व्यक्ति योग-साधना करे तो समाज में सुव्यवस्था, सद्भाव एवं सदाचरण की स्थिति स्वयं ही व्याप्त हो जायेगी।
      यम नाम से योग-आचरण के जो उपरोक्त नियम हैं, वे मानव निर्मित आदर्श-सूत्र नहीं, प्रकृति द्वारा निर्धारित हैं, इसलिए मनुष्य जन्म का लक्ष्य इन्ही आचरणों के अनुरूप चलना ही है। फिर भी, हम पाते हैं कि मनुष्य में इन नियमों का पालन करने की वृत्ति में उत्साहहीनता या विरोध-भाव  होता है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक इस उत्साहहीनता या विरोध-भाव को उसकी स्वाभाविक-वृत्ति मानते हैं। यदि यही मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति होती तो ऋषियों ने इसे बदलने की शिक्षा नहीं दी होती, क्योंकि प्राकृतिक-वृत्ति को बदलने के दुष्परिणाम ही हो सकते हैं, सुपरिणाम नहीं। यह सम्भव नहीं कि गाय को मांस खिलाना सिखायें और बाघ को घास खाना और उनकी प्रवृत्ति में परिवर्तन कर दें। यम के नियमों का पालन करने में जिस विरोध-भाव और उत्साहहीनता की उत्पत्ति होती है, उसका कारण है मन की चंचलता। मन की चंचलता को दूर कर इन नियमों का पालन करने में मनुष्य को समर्थ बनाने की शिक्षा, तकनिक, व्यवस्था और परम्परा ही धर्म है।
चित्त (मन) की चंचलता
   व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तदर्नालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः।।(योगदर्शन, समाधिपाद (पहला अध्याय), मंत्र30)।।
      महर्षि पातंजलि बताते हैं कि (चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः) जब चित्त अस्थिर (चंचल) होता है तो उसके विक्षेप (लहरियाँ) नौ प्रकार के होते हैं जिन्हें 'विकृति' (अन्तरायाः) कहा जाता है। ये विकृतियाँ हैं—व्याधिस्तयानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि।
विकृतियों की व्याख्या
      यहाँ पर हम सुनिश्चितरूप से यह जान लें कि स्वाभाविक वृत्ति और विकृति में स्पष्ट अन्तर है। मान लें कि ऊँगली में कोई छोटा सा काँटा चुभ गया है जिसे आप नहीं निकाल पाए हैं। वह काँटा विकार है, क्योंकि शरीर से बाहर की चीज है। इसे नहीं निकालेंगे तो वहाँ पर पक कर घाव हो जाएगा और डाक्टर के यहाँ जाकर चीड़-फाड़ कर इसे विकृति को निकलवाना होगा। लोहे की कड़ाही में जो जंग लगती है, वह भी विकृति (विकार) है। इस भी साफ करना पड़ता है। इसी प्रकार, महर्षि पातंजलि ने ऊपर जिन विकारों का विवरण प्रस्तुत किया है, उन विकारों को निकालना या उनका परित्याग करना आवश्यक है, अन्यथा व्यक्ति को बड़ी होनी होती है। पहली हानि तो यही है कि ऐसी स्थिति में यम के नियमों के पालन के प्रति अनिच्छा ही नहीं, विरोध भाव भी उत्पन्न होता है। इसके कारण समाज में अस्थिरता का माहौल उत्पन्न होता है। समाज में अहिंसा का वातावरण नहीं है तो लोग अपने क्षुद्र स्वार्थ की पूर्ति के लिये हिंसा करने लगते हैं। सत्य के स्थान पर झूठे तर्क गढ़कर परिस्थितियों को गम्भीर और उद्विग्न बनाया जाता है। चोरी (अस्तेय) और अपरिग्रह के ही अनेकरूप हैं जिन्हें हम चोरी, डकैती, माफियावाद एवं भ्रष्टाचार के रूपों में निरूपित कर सकते हैं। ये सभी सामाजिक परिस्थितियों को बिगाड़ने वाले हैं। ब्रह्मचर्य का पालन न होने से समाज में नारी की स्थिति का पतन होता है और देवी-स्वरूपा न होकर भोग्या मात्र रह जाती है। येन-केन-प्रकारेण उसके रूप-सौन्दर्य और शरीर का व्यवसाय आरम्भ हो जाता है। ऐसे व्यवसायों में उलझी माताएँ प्रायः मातृत्व का सही निष्पादन नहीं कर पातीं जिससे भविष्य की संतति-परम्परा विकृत होने लगती है।
      अतः, मन के विकारों का स्वरूप जानकर उन्हें दूर करने का उपाय अवश्य किया जाना चाहिए। यह योग-साधना से ही सम्भव है। पूर्व के पोस्ट में आसन और ध्यान का सहज स्वरूप बताकर ध्यान आरम्भ करने की प्रक्रिया बताई गई है। ध्यान की एकाग्रता में मन की चंचलता को दूर करने की प्रभावी एवं विराट शक्ति है। अब हम चित्त की विकृतियों के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे।
1.    व्याधि-- शरीर (इन्द्रियसमुदाय) तथा मस्तिष्क में किसी प्रकार का रोग उत्पन्न हो जाना 'व्याधि' है। इस व्याधि का कारण मन की चंचलता है, इसलिए जब भी हम बीमार पड़ते हैं तो हमें समझ लेना चाहिए कि हमारा 'मन' चंचल हो चुका है। उसकी चंचलता को दूर करने से बीमारी से निजात पायी जा सकती है।
2.   स्त्यान अर्थात् अकर्मण्यता—काम से भागने की वृत्ति को अकर्मण्यता (स्त्यान) कहा जाता है। परन्तु यह मनुष्य की प्राकृतिक वृत्ति नहीं है, बल्कि यह मन की चंचलता के कारण उत्पन्न विकार है। इसीकारण भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म न करने में तेरी आसक्ति न हो अर्थात् तुम अकर्मण्य मत बनो—ते सङ्गोऽस्तवकर्मणि (गीता, 2/47)।
3.   संशय (सन्देह)—इसकी उत्पत्ति भी मन की चंचलता के कारण ही होती है। आदमी किसी भी काम को करना चाहता है लेकिन मन में शंका होती है कि यह काम उससे हो भी पायेगा या नहीं। इतना ही नहीं, वह दूसरे को भी कोई काम सौंपता है, तो उसे शंका होती है कि वह इस काम को पूरा कर पायेगा कि नहीं। यह सब भ्रम है जो चित्त की चंचलता के कारण उत्पन्न होता है और मनुष्य इस भ्रम में उलझकर कई अवसर खो बैठता है।
4.   प्रमाद (लापरवाही)—किसी भी काम को करने में लापरवाही की जो स्थिति है, उसके कारण मनुष्य आज का काम कल पर छोड़ता चला जाता है और समय का महत्व नहीं समझ पाने के कारण अपना लक्ष्य प्राप्त करने में असफल रहता है। यह भी मन की चंचलता के कारण उत्पन्न विकृति है। यदि हम नियमित ध्यान करें तो यह विकृति स्वतः दूर होती जायेगी।
5.   आलस्य—तमोगुण की अधिकता के कारण शरीर और मन में भारीपन आ जाता है। इसके कारण व्यक्ति को किसी काम को करने की इच्छा नहीं होती, यही आलस्य है। इसके चलते भी वह आज के काम को कल पर टालता चला जाता है। लेकिन, इसकी उत्पत्ति का कारण मन की चंचलता है।
6.   अविरति—अविरति वह विकार है जो मनुष्य विषयों के साथ इन्द्रियों के संयोग से उत्पन्न होता है और इसके कारण अज्ञान की उत्पत्ति होती है। जैसे, जिह्वा स्वाद की अनुभूति को ग्रहण करती है। इसका काम है भोजन के ग्रास को चख कर देखना कि यह उदर के आन्तरिक अवयवों के योग्य है या नहीं। कोई सड़ी या ऐसी वस्तु जीभ पर पड़ जाए, तो आदमी थूक या उगल देता है या वमन करने लगता है। यहाँ इन्द्रिय है जिह्वा और उसका विषय है स्वाद। विषय कहने का कारण यह है कि स्वाद में आनन्द की अनुभूति भी होती है। इस आनन्द का कारण जिह्वा नहीं, मन है। मन अपनी ध्यान-संज्ञक बलात्मक शक्ति द्वारा इन्द्रियों को काम करने के लिये प्रेरित करता है, इसलिए इन्द्रियों की क्रियाशीलता की स्थिति में ध्यान के कारण मानों वह स्वयं प्रकट रहता है। इसलिए, स्वाद के साथ मन का आनन्द सन्निहित रहता है। मनुष्य समझता है कि आनन्द की अनुभूति का कारण इन्द्रिय है, इसलिए स्वाद के आनन्द को वह इन्द्रिय का विषय समझ बैठता है। यही अविरति है।
   स्थिति यह उत्पन्न होती है कि भोजन का उद्देश्य होता है उदर-पूर्ति, लेकिन मनुष्य स्वाद के आनन्द के लिये भोजन करता है और अपने उदर एवं उसके अन्तावयवों को बर्बाद करने लगता है। इन्द्रियों के विषयों के प्रति लिप्सा को ही वासना कहते हैं जिसका कारण है अविरति संज्ञक विकार। इसकी उत्पत्ति मन की चंचलता के कारण हुई है, इसलिए ध्यानादि योग द्वारा मन की चंचलता को दूर करके इसके विकृति को दूर किया जा सकता है।
7.   भ्रान्ति-दर्शन—ध्यान की कमी (मन की चंचलता) के कारण कभी-कभी हमारी इन्द्रियाँ धोखा खा जाती हैं। सामने कोई चीज है, लेकिन उसके स्थान पर किसी दूसरी चीज का आभास हो जाता है। जैसे रस्सी को साँप समझ लेना। किसी आवाज को किसी दूसरे व्यक्ति की आवाज समझ लेना आदि-आदि। ऐसी ही चंचलता के कारण व्यक्ति के समक्ष कोई अच्छी बात कहता है तो उसे बुरा लग जाता है। ये सब भ्रान्त-दर्शन संज्ञक विकार हैं जो मन की चंचलता के कारण उत्पन्न होते हैं।
8.   अलब्धभूमिकत्व—प्रयास करने भी इच्छित फल का न मिलना ही अलब्धभूमिकत्व है। जैसे, कोई विद्य़ार्थी बहुत श्रम करता है, फिर भी परीक्षा में अपेक्षित अंक नहीं ला पाता। यहाँ पर मानसिक स्थिति के भटकाव के कारण श्रम की दिशा धनात्मक नहीं हो पाती, क्योंकि वह विवेकजनित बुद्धि को तर्क-वितर्क में उपेक्षित कर बैठता है। यह भी विकृति है जो मन की चंचलता के कारण उत्पन्न होती है।
9.   अनवस्थितत्व—किसी एक स्थान या कार्य में ज्यादा देर मन नहीं लगना ही अनवस्थितत्व है। यह भी मन की चंचलता के कारण उत्पन्न विकृति है। 
      आधुनिक मनोवैज्ञानिक इन विकृतियों में से अधिकांश को मनुष्य की मूल-प्रवृत्ति बताते हैं और इसीरूप में उनकी व्याख्या करते हैं। उनके सिद्धान्त भले ही भौतिक धरातल पर या प्रत्यक्षरूप से सही दीखते हों, फिर भी वे ये नहीं जानते कि ये मनुष्य की मूल-प्रवृत्तियाँ नहीं, चंचल मन द्वारा विक्षेपित विकृतियाँ हैं, जिन्हें ध्यान आदि योग-साधनाओं से दूर किया जा सकता है।
रमाशंकर जमैयार