The science of yoga

योग-विद्या का आध्यात्मिक-वैज्ञानिक अध्ययन

Saturday, August 20, 2011

धीरे-धीरे रे मना

आसन और ध्यान
 श्रुतियाँ कहती हैं कि मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः। अर्थात् मनुष्यों में मन ही बन्धन एवं मोक्ष दोनों का ही कारण है। श्रुति का यह वाक्य मनुष्य पर लागू होता है, किसी अन्य जीव या प्राणी पर नहीं, क्योंकि यहा मनुष्य (मनुष्याणां) का विशेष प्रयोग किया गया है। हम जानते हैं कि मनुष्य का मन बड़ा चंचल होता है। इस दृष्टि से देखा जाए तो मन की दो अवस्थाएँ होती हैं--चंचल और शान्त। चंचल मन को नियन्त्रित करके उसे शान्त अवस्था में लाया जाता है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि नियन्त्रित मन मोक्ष की ओर ले जाता है और अनियन्त्रित मन बन्धन में डाल देता है। इस श्रुति-वाक्य में एक और संदेश छिपा हुआ है। वह यह कि अनेकानेक प्राणियों (जीवों) में मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी हैं, जिसमें मन पर नियन्त्रण करने की क्षमता है। इस क्षमता को विकसित करने के लिए ऋषियों ने जिस विद्या और तकनिक की स्थापना की, उसी का नाम योग है—योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।(योगदर्शन, 1/2)।। अर्थात् चित्त (मन) की वृत्तियों का निरोध (रोकने की क्षमता प्राप्त करना) ही योग है। महर्षि पातञजलि बताते हैं कि चित्त की वृत्तियों के निरोध से आत्म-स्वरूप का ज्ञान हो जाता है--तदा द्रष्टु स्वरूपेवस्थानम्।।(योगदर्शन,1/3)।। यही मोक्ष की अवस्था है। अतः, हम कह सकते हैं कि योगविहीन मनुष्य बन्धन में पड़ा रहता है। योग की विद्या और तकनिक को अपना कर वह बन्धन से मुक्ति (मोक्ष) भी प्राप्त कर सकता है। इसलिए यह समझ लिया जाना चाहिए कि मनुष्यरूप में मिले इस जीवन को सार्थक बनाने के लिये योग-विद्या ही मूलभूत आधार है। भारत के प्राचीन परम्पराओं में मनुष्य को उसके शैशव काल से ही थोड़ा-थोडा करके उम्र के अनुसार योग की तकनिक सिखायी जाती थी जिसे संस्कार का नाम दिया जाता है। बाद में इसका विस्तृत स्वरूप गुरुकुलों में विद्याध्ययन के दौरान सिखाया जाता था। यह विद्या कोई कहानी नहीं कि इसे पढ़ा और समझ लिया। योग की कोई पुस्तक पढ़ लेने मात्र से योग-विद्या में निपुणता नहीं आ सकती, यह विज्ञान है। इसलिए, यह समझना भी आवश्यक है कि जैसा बताया जा रहा है, वैसा क्यों होता है? तब ही यह विद्या भली-भाँति समझ में आएगी और इसके तकनिकी पक्ष पर विश्वास जमेगा। यही कारण है कि इसे घूँट-घूँट कर समझना और हृद्यंगम करना पड़ता है। हर तकनिक की सूक्ष्मता को अभ्यास द्वारा भी समझ-समझ कर आगे बढ़ना पड़ता है। आज के दौर में योग-साधना की जानकारी देने वाले कई हैं और अच्छी जानकारी देते भी हैं, लेकिन इसके आध्यात्मिक रहस्यों की वैज्ञानिक व्याख्या नहीं कर पाते। कारण यह है कि प्राचीन ग्रन्थों की शैली आज की वैज्ञानिक शैली से भिन्न है। इस कारण उस शैली में लिखित वैज्ञानिक विवरणों को आधुनिक शैली के अनुरूप समझने और समझाने की कला विकसित करने की आवश्यकता है। इस ब्लॉग के माध्यम से हम इसका प्रयास करेंगे। इस क्रम में योग के तकनिकी पक्ष की जानकारी भी क्रमवार सहज से मध्यम एवं कठिन के क्रम में धीरे-धीरे एवं घूँट-घूँट के क्रम में चलना उचित रहेगा। (1) आसन आसन भी अपने आप में योग है। फिर भी, इसका तात्पर्य इस प्रकार बैठना है कि रीढ़ की हड्डियाँ तनी रहें, शरीर सीधा रहे और हम आराम से बैठकर कुछ देर तक साधना कर सकें। हम पाश्चात्यवादी सुख-सुविधाओं के आदि हो चुके हैं। आदत है कुर्सी पर बैठकर पैर लटका कर रखने की। इसलिए पाल्थी मारकर भी अधिक देर बैठने से पैर में तकलीफ होने लगती है। ऐसी स्थिति में बैठने के सरलतम आसन से प्रारम्भ करेंगे। सिद्धासन योग-साधना के लिए बैठने का सहज आसन सिद्धासन है। नाम से ही यह सिद्धियों का आसन है, इसलिए इसकी महत्ता बहुत बड़ी है। इसके क्लिष्ट और सहज दो रूप हैं। इसलिए पहले सहजरूप से आरम्भ करें। विधि दोनों पैरों को सामने फैलाकर बैठ जायें। बायें पैर को घुटने से मोड़कर, इसकी एड़ी (सुप्ती) को दाहिने पैर की जाँघ-मूल से सटायें। इसी स्थिति में दायें पैर को को घुटने से मोड़कर उसकी एड़ी (सुप्ती) बायें पैर पर रखें। यह सिद्धासन का शास्त्रीय स्वरूप तो नहीं है, फिर भी यह सद्धासन ही है और उसी का सहजरूप है—इसमें शंका की कोई आवश्यकता नहीं। क्योंकि, योग का पहला नियम है कि धीरे-धीरे ही कठिन योग की ओर बढ़ना उचित होता है। (2) ध्यान जैसा कि ऊपर कहा गया है कि योग का आधारभूत लक्ष्य मन को नियन्त्रित करना है। इसकी प्राथमिक तकनिक है--ध्यान को एकाग्र करना। आँखों को जब हम किसी एक विन्दु पर टिकाकर कुछ देर रखते हैं तो इसे ध्यान को एकाग्र करने की सहज तकनिक कह सकते हैं। तीरन्दाज या बन्दूक के निशानेबाज पर लक्ष्य-विन्दू पर आँखे जमाते हैं और सन्धान करते हैं। एकाग्रता जितनी अधिक होगी, सन्धान उतना ही पूर्ण होगा। योग-विद्या में भी यही तकनिक अपनाई जाती है। इस तकनिक की जानकारी देते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—समं कायाशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः। सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।।(गीता,6/13)।। अर्थात्, शरीर (काया), सिर और ग्रीवा (कायाशिरोग्रीवं) को एक सीध में स्थिर रखते हुए (धारयन्नचलं स्थिरः), दृष्टि को नासिकाग्र पर इस प्रकार एकाग्र करना चाहिए (सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं) कि आँखें दूसरी अन्य दिशाओं में नहीं देख सकें (दिशश्चानवलोकयन)। तात्पर्य यह है कि मन को नियन्त्रित करने के लिए नासिकाग्र पर दृष्टि एकाग्र करने का अभ्यास किया जाना चाहिए। यह विधि स्वयं भगवान श्रीकृष्ण द्वारा बताई गई है, इसलिए इसपर किसी प्रकार की शंका की आवश्यकता ही नहीं है। अतः, हम उन पाठकों से जो योग-साधना को सीखना चाहते हैं, अनुरोध करना चाहेंगे कि ऊपर बताये सिद्धासन के सहज स्वरूप को ग्रहण कर शरीर, ग्रीवा एवं सिर को एक सीध में रखकर नासिकाग्र पर दोनों आँखों से देखने का अभ्यास करें। कितने समय तक ऐसा करना है, यह साधक के विवेक पर छोड़ा जा सकता है। इन्द्रियों (यहाँ पर आँखें) कितनी देर तक सहज रूप से अनुशासन सह पायेंगी, इसे भाँपने का प्रयास साधक को ही करना चाहिए। आरम्भ में दस मिनट तक नासिकाग्र पर दृष्टि जमायें। फिर हल्के से पलकें बन्द कर विश्राम दें आँखों को। चाहें तो फिर अगले दस मिनट के लिए इसे दुहरायें। इस अभ्यास को सुबह और शाम करें और नियमितरूप से प्रतिदिन करने की निरन्तरता कायम करें। निरन्तरता रखने से अभ्यास का काल क्रमिक रूप से बढ़ने की शक्ति मिलती जाएगी। (3) उदर (पेट) की स्थिति इस प्रकार के ध्यान में जब बैठते हैं तो पेट (उदर) को अन्दर की ओर खींच कर रखने का अभ्यास भी कर सकते हैं, क्योंकि अन्ततः इस स्थिति को प्राप्त करना ही होगा। यह स्वयं में योग की उत्तम तकनिक है जिसके अनेकानेक लाभ हैं। इस पाठ के अन्त में हम पुनः दुहरायेंगे कि योग-साधना करें तो नियमित रूप से प्रतिदिन करें एवं इसकी निरन्तरतता बनाये रखें। रमाशंकर जमैयार