The science of yoga

योग-विद्या का आध्यात्मिक-वैज्ञानिक अध्ययन

Tuesday, February 10, 2015

The science of yoga: योग-विद्या का सम्बन्ध ‘विज्ञान’ से

The science of yoga: योग-विद्या का सम्बन्ध ‘विज्ञान’ से:            भारतीय ज्ञान-विज्ञान का आधार ‘वेद’ हैं, इसलिए भारतीय-विज्ञान को वैदिक-विज्ञान के नाम से जाना जाता है। विज्ञान शब्द में ‘वि’ एक ...

योग-विद्या का सम्बन्ध ‘विज्ञान’ से

           भारतीय ज्ञान-विज्ञान का आधार ‘वेद’ हैं, इसलिए भारतीय-विज्ञान को वैदिक-विज्ञान के नाम से जाना जाता है। विज्ञान शब्द में ‘वि’ एक उपसर्ग है जिसका अर्थ है ‘विशेष’, इसलिए विज्ञान का स्वाभाविक अर्थ है ‘विशेष-ज्ञान’। हमसब जब इस धरती (पृथ्वी) पर विचार करते हैं तो हमारी इन्द्रियजनित अनुभूतियों के आधार पर लगता है कि हमारी धरती सपाट और चौरस है। परन्तु, ‘वैज्ञानिक-ज्ञान’ बताता है कि यह धरती सपाट और चौरस नहीं, गोलाकार है। विज्ञान ने इसे अवश्य ही प्रमाणित किया है, फिर भी सच तो यह है कि उसे भी यह धरती चौरस और सपाट ही दीखती है। इसी प्रकार, हमें अपनी धरती स्थिर मालुम पड़ती है और यह लगता है कि सूर्य धरती के चारों ओर चक्कर लगाता हुआ दिन-रात का नियमन करता रहता है। वैज्ञानिक-ज्ञान बताता है कि हमारी धरती स्थिर नहीं है, क्योंकि वह अपनी धूरी पर लट्टू की भाँति अपने ही चारों ओर घूम रही है और धरती की तुलना में सूर्य स्थिर है।
            इसके पीछे कारण यह है कि हमारी अनुभूतियाँ इन्द्रियजनित हैं। इन्द्रियाँ दस हैं—पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ। चक्षु (आँख), कर्ण (कान), नासिका, जिह्वा और त्वचा, ये ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। हमारी ‘अनुभूतियाँ’ इन्हीं ज्ञानेन्द्रियों पर आधारित होती हैं, इसलिए इन अनुभूतियों को ‘इन्द्रियजनित-अनुभूति‘ कहा जा सकता है। हमारी अनुभूतियाँ इन्द्रियजनित हैं, इसलिए यह धरती हमें चौरस और सपाट दीखती हैं—सूर्य धरती की परिक्रमा करता हुआ प्रतीत होता है।
            लेकिन, वैज्ञानिक-ज्ञान इन इन्द्रियजनित-अनुभूतियों से परे है। इससे यह स्पष्ट होता है कि ‘विज्ञान’ विशेष-ज्ञान इसलिए है कि वह इन्द्रियजनित-अनुभूतियों से परे है। दूसरे शब्दों में ‘विज्ञान’ इन्द्रियातीत-ज्ञान है। यही वह वास्तविक कथ्य है जिसे वैदिक-ऋषि बारम्बार कहते आ रहे हैं।
            ‘विज्ञान’ की साधना का जो आधुनिक स्वरूप है, उसे विज्ञान की संज्ञा देने से बेहतर है कि ‘साईंस’ ही कहा जाए। कारण यह है कि साईंस-वाले विद्वान कृत्रिम उपकरणों के माध्यम से इस विशेष-विज्ञान का विस्तार करते हैं। वैदिक-ऋषियों ने उनसे भिन्न मार्ग का अवलम्बन किया था।
            वैदिक-ऋषियों यह जानने का प्रयास किया कि क्या मनुष्य में इन्द्रियातीत-अनुभूतियाँ प्राप्त करने की क्षमता जगाई जा सकती हैॽ यहाँ हम इसका विश्लेषणात्मक अध्ययन कर लेते हैं।
            दृश्य अनुभूति की बात करें तो यह सहज कहा जा सकता है कि जो वस्तु हमारे दृष्टि-पथ पर आती है उसकी अनुभूति हमें आँखों के माध्यम से होती है। लेकिन, कभी-कभी स्थिति ऐसी भी हो जाती है कि हमारा विचार कहीं और भटकता होता है और हमारे सामने आने वाली वस्तु भी हमें दिखाई नहीं पड़ती। अर्थात्, हम किसी वस्तु को तभी देख पाते हैं जब उस पर हमारा ‘ध्यान’ जाता है। यही स्थति, श्रवण-अनुभूति के सन्दर्भ में भी कही जा सकती है। किसी आवाज को हम तभी सुन पाते हैं जब हमारा ‘ध्यान’ उस पर जाता है। प्रश्न है कि यह ‘ध्यान’ क्या हैॽ आधुनिक मनोविज्ञान भी स्वीकार करता है कि यह ‘ध्यान’ मन (चित्त) द्वारा निरूपित-शक्ति है। तात्पर्य यह है कि ‘मन’ की शक्ति है ‘ध्यान’ और हमारा ‘मन’ अपनी इस शक्ति के माध्यम से ज्ञानेन्द्रियों समेत समस्त इन्द्रियों को नियन्त्रित करता है।
            वैदिक-ऋषियों ने इन्द्रियातीत-ज्ञान के लिए इस ‘मन’ (चित्त) को आधार बनाया और जिसकी परिकल्पना लोग ‘छठी-इन्द्रिय’ के रूप में करते हैं, वह ‘मन’ ही है। हमारे ऋषि बताते हैं कि यह ‘मन’ न केवल ‘इन्द्रियों’ का स्वामी है, बल्कि मस्तिष्क की बौद्धिक-क्षमता का भी स्वामी है। कारण यह है कि अनुभूति का कारण केवल ‘इन्द्रियाँ’ ही नहीं, ‘मस्तिष्क’ भी है। अस्तु, इन्द्रियों और मस्तिष्क के साथ ही साथ ‘मन’ की भी सत्ता है जो इन दोनों का नियन्त्रक है। इस ‘मन’ को ही ‘चित्त’ की भी संज्ञा दी गई है।
            इस सन्दर्भ में यह बता देना अनिवार्य है कि ‘साईँस’ की प्रयोगशालाओं में और उसके तकनिक के माध्यम से ‘मन’ की सत्ता को जानना अभी तक सम्भव नहीं  हो पाया है। इसके बावजूद आज का विज्ञान-आधारित मनोविज्ञान (psychology) भी ‘मन’ की सत्ता से इन्कार नहीं कर पाता, क्योंकि ‘ध्यान’ का मानवीय-प्रकृति में अनिवार्य स्थान है।
            भारतीय मनीषी बताते हैं कि ‘मन’ इन्द्रियों और मस्तिष्क का नियन्त्रक है और ‘ध्यान’ उस ‘मन’ की शक्ति है, इसलिए ध्यान को एकाग्र करके ‘मन’ को नियन्त्रित किया जा सकता है। यह नियन्त्रण स्थापित होने पर ‘मन’ के माध्यम से ‘विशेष-ज्ञान’ अर्थात् ‘इन्द्रियातीत-अनुभूतियाँ’ प्राप्त करना सम्भव हो जाता है। ज्ञान-विज्ञान की साधना के लिए मन को नियन्त्रण करने की विद्या को ही ‘योग-विद्या’ की संज्ञा दी गई है। इसी तथ्य को स्वीकार करते हुए महर्षि पातंजलि अपने योग-दर्शन में ‘योगश्चित्तवृत्ति निरोधः‘ कहकर  चित्त (मन) को योग-विद्या का मुख्य विषय माना है।

                उपरोक्त विवरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि ‘ज्ञान’ को हम इन्द्रियों के माध्यम से नहीं जान पाते, उसे ‘मन’ के माध्यम से जाना जा सकता है, क्योंकि वह मनुष्य की सर्वोपरि परन्तु इन्द्रिय है। इसलिए, योग-विद्या वैदिक-विज्ञान की प्रमुख तकनिक है या कहें कि योग-विद्या का सम्बन्ध ‘विज्ञान’ (विशेष-ज्ञान) से है।

रमाशंकर जमैयार,

85/41, वरूणपथ, मानसरोवर, जयपुर (राजस्थान)।

Tuesday, August 30, 2011

चित्त की चंचलता कई विकृतियों का मौलिक कारण


      महर्षि पातंजलि के अनुसार योग-साधना के आठ अंग हैं—यम, नियम, आसान, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।
      अष्टांग योग का का पहला भाग है-यम। योगियों के आचरण लिए बनाये गये नियम ही यम हैं। ये हैं—(1)अहिंसा, (2)सत्य, (3)अस्तेय (चोरी न करना), (4)ब्रह्मचर्य और (5)अपरिग्रह (आवश्यकता से अधिक धन-संग्रह की वृत्ति पर रोक)। यहाँ यह नहीं मान बैठना चाहिए कि योगी को पहले इन नियमों का पालन करना चाहिए, तभी योग का साधना का आरम्भ करना चाहिए। हम पूर्व में ही बता चुके हैं कि योग स्थिरता से एवं धीरे-धीरे आगे बढ़ने की विद्या है। जैसे-जैसे इस साधना में व्यक्ति आगे बढ़ता जाता है, यम के नियमों के पालन की वृत्ति स्वतः जाग्रत होती जाती है।
      इन नियमों से पूरा समाज प्रभावित होता है, इसलिए हम यह कह सकते हैं कि समाज का हर व्यक्ति योग-साधना करे तो समाज में सुव्यवस्था, सद्भाव एवं सदाचरण की स्थिति स्वयं ही व्याप्त हो जायेगी।
      यम नाम से योग-आचरण के जो उपरोक्त नियम हैं, वे मानव निर्मित आदर्श-सूत्र नहीं, प्रकृति द्वारा निर्धारित हैं, इसलिए मनुष्य जन्म का लक्ष्य इन्ही आचरणों के अनुरूप चलना ही है। फिर भी, हम पाते हैं कि मनुष्य में इन नियमों का पालन करने की वृत्ति में उत्साहहीनता या विरोध-भाव  होता है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक इस उत्साहहीनता या विरोध-भाव को उसकी स्वाभाविक-वृत्ति मानते हैं। यदि यही मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति होती तो ऋषियों ने इसे बदलने की शिक्षा नहीं दी होती, क्योंकि प्राकृतिक-वृत्ति को बदलने के दुष्परिणाम ही हो सकते हैं, सुपरिणाम नहीं। यह सम्भव नहीं कि गाय को मांस खिलाना सिखायें और बाघ को घास खाना और उनकी प्रवृत्ति में परिवर्तन कर दें। यम के नियमों का पालन करने में जिस विरोध-भाव और उत्साहहीनता की उत्पत्ति होती है, उसका कारण है मन की चंचलता। मन की चंचलता को दूर कर इन नियमों का पालन करने में मनुष्य को समर्थ बनाने की शिक्षा, तकनिक, व्यवस्था और परम्परा ही धर्म है।
चित्त (मन) की चंचलता
   व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तदर्नालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः।।(योगदर्शन, समाधिपाद (पहला अध्याय), मंत्र30)।।
      महर्षि पातंजलि बताते हैं कि (चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः) जब चित्त अस्थिर (चंचल) होता है तो उसके विक्षेप (लहरियाँ) नौ प्रकार के होते हैं जिन्हें 'विकृति' (अन्तरायाः) कहा जाता है। ये विकृतियाँ हैं—व्याधिस्तयानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि।
विकृतियों की व्याख्या
      यहाँ पर हम सुनिश्चितरूप से यह जान लें कि स्वाभाविक वृत्ति और विकृति में स्पष्ट अन्तर है। मान लें कि ऊँगली में कोई छोटा सा काँटा चुभ गया है जिसे आप नहीं निकाल पाए हैं। वह काँटा विकार है, क्योंकि शरीर से बाहर की चीज है। इसे नहीं निकालेंगे तो वहाँ पर पक कर घाव हो जाएगा और डाक्टर के यहाँ जाकर चीड़-फाड़ कर इसे विकृति को निकलवाना होगा। लोहे की कड़ाही में जो जंग लगती है, वह भी विकृति (विकार) है। इस भी साफ करना पड़ता है। इसी प्रकार, महर्षि पातंजलि ने ऊपर जिन विकारों का विवरण प्रस्तुत किया है, उन विकारों को निकालना या उनका परित्याग करना आवश्यक है, अन्यथा व्यक्ति को बड़ी होनी होती है। पहली हानि तो यही है कि ऐसी स्थिति में यम के नियमों के पालन के प्रति अनिच्छा ही नहीं, विरोध भाव भी उत्पन्न होता है। इसके कारण समाज में अस्थिरता का माहौल उत्पन्न होता है। समाज में अहिंसा का वातावरण नहीं है तो लोग अपने क्षुद्र स्वार्थ की पूर्ति के लिये हिंसा करने लगते हैं। सत्य के स्थान पर झूठे तर्क गढ़कर परिस्थितियों को गम्भीर और उद्विग्न बनाया जाता है। चोरी (अस्तेय) और अपरिग्रह के ही अनेकरूप हैं जिन्हें हम चोरी, डकैती, माफियावाद एवं भ्रष्टाचार के रूपों में निरूपित कर सकते हैं। ये सभी सामाजिक परिस्थितियों को बिगाड़ने वाले हैं। ब्रह्मचर्य का पालन न होने से समाज में नारी की स्थिति का पतन होता है और देवी-स्वरूपा न होकर भोग्या मात्र रह जाती है। येन-केन-प्रकारेण उसके रूप-सौन्दर्य और शरीर का व्यवसाय आरम्भ हो जाता है। ऐसे व्यवसायों में उलझी माताएँ प्रायः मातृत्व का सही निष्पादन नहीं कर पातीं जिससे भविष्य की संतति-परम्परा विकृत होने लगती है।
      अतः, मन के विकारों का स्वरूप जानकर उन्हें दूर करने का उपाय अवश्य किया जाना चाहिए। यह योग-साधना से ही सम्भव है। पूर्व के पोस्ट में आसन और ध्यान का सहज स्वरूप बताकर ध्यान आरम्भ करने की प्रक्रिया बताई गई है। ध्यान की एकाग्रता में मन की चंचलता को दूर करने की प्रभावी एवं विराट शक्ति है। अब हम चित्त की विकृतियों के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे।
1.    व्याधि-- शरीर (इन्द्रियसमुदाय) तथा मस्तिष्क में किसी प्रकार का रोग उत्पन्न हो जाना 'व्याधि' है। इस व्याधि का कारण मन की चंचलता है, इसलिए जब भी हम बीमार पड़ते हैं तो हमें समझ लेना चाहिए कि हमारा 'मन' चंचल हो चुका है। उसकी चंचलता को दूर करने से बीमारी से निजात पायी जा सकती है।
2.   स्त्यान अर्थात् अकर्मण्यता—काम से भागने की वृत्ति को अकर्मण्यता (स्त्यान) कहा जाता है। परन्तु यह मनुष्य की प्राकृतिक वृत्ति नहीं है, बल्कि यह मन की चंचलता के कारण उत्पन्न विकार है। इसीकारण भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म न करने में तेरी आसक्ति न हो अर्थात् तुम अकर्मण्य मत बनो—ते सङ्गोऽस्तवकर्मणि (गीता, 2/47)।
3.   संशय (सन्देह)—इसकी उत्पत्ति भी मन की चंचलता के कारण ही होती है। आदमी किसी भी काम को करना चाहता है लेकिन मन में शंका होती है कि यह काम उससे हो भी पायेगा या नहीं। इतना ही नहीं, वह दूसरे को भी कोई काम सौंपता है, तो उसे शंका होती है कि वह इस काम को पूरा कर पायेगा कि नहीं। यह सब भ्रम है जो चित्त की चंचलता के कारण उत्पन्न होता है और मनुष्य इस भ्रम में उलझकर कई अवसर खो बैठता है।
4.   प्रमाद (लापरवाही)—किसी भी काम को करने में लापरवाही की जो स्थिति है, उसके कारण मनुष्य आज का काम कल पर छोड़ता चला जाता है और समय का महत्व नहीं समझ पाने के कारण अपना लक्ष्य प्राप्त करने में असफल रहता है। यह भी मन की चंचलता के कारण उत्पन्न विकृति है। यदि हम नियमित ध्यान करें तो यह विकृति स्वतः दूर होती जायेगी।
5.   आलस्य—तमोगुण की अधिकता के कारण शरीर और मन में भारीपन आ जाता है। इसके कारण व्यक्ति को किसी काम को करने की इच्छा नहीं होती, यही आलस्य है। इसके चलते भी वह आज के काम को कल पर टालता चला जाता है। लेकिन, इसकी उत्पत्ति का कारण मन की चंचलता है।
6.   अविरति—अविरति वह विकार है जो मनुष्य विषयों के साथ इन्द्रियों के संयोग से उत्पन्न होता है और इसके कारण अज्ञान की उत्पत्ति होती है। जैसे, जिह्वा स्वाद की अनुभूति को ग्रहण करती है। इसका काम है भोजन के ग्रास को चख कर देखना कि यह उदर के आन्तरिक अवयवों के योग्य है या नहीं। कोई सड़ी या ऐसी वस्तु जीभ पर पड़ जाए, तो आदमी थूक या उगल देता है या वमन करने लगता है। यहाँ इन्द्रिय है जिह्वा और उसका विषय है स्वाद। विषय कहने का कारण यह है कि स्वाद में आनन्द की अनुभूति भी होती है। इस आनन्द का कारण जिह्वा नहीं, मन है। मन अपनी ध्यान-संज्ञक बलात्मक शक्ति द्वारा इन्द्रियों को काम करने के लिये प्रेरित करता है, इसलिए इन्द्रियों की क्रियाशीलता की स्थिति में ध्यान के कारण मानों वह स्वयं प्रकट रहता है। इसलिए, स्वाद के साथ मन का आनन्द सन्निहित रहता है। मनुष्य समझता है कि आनन्द की अनुभूति का कारण इन्द्रिय है, इसलिए स्वाद के आनन्द को वह इन्द्रिय का विषय समझ बैठता है। यही अविरति है।
   स्थिति यह उत्पन्न होती है कि भोजन का उद्देश्य होता है उदर-पूर्ति, लेकिन मनुष्य स्वाद के आनन्द के लिये भोजन करता है और अपने उदर एवं उसके अन्तावयवों को बर्बाद करने लगता है। इन्द्रियों के विषयों के प्रति लिप्सा को ही वासना कहते हैं जिसका कारण है अविरति संज्ञक विकार। इसकी उत्पत्ति मन की चंचलता के कारण हुई है, इसलिए ध्यानादि योग द्वारा मन की चंचलता को दूर करके इसके विकृति को दूर किया जा सकता है।
7.   भ्रान्ति-दर्शन—ध्यान की कमी (मन की चंचलता) के कारण कभी-कभी हमारी इन्द्रियाँ धोखा खा जाती हैं। सामने कोई चीज है, लेकिन उसके स्थान पर किसी दूसरी चीज का आभास हो जाता है। जैसे रस्सी को साँप समझ लेना। किसी आवाज को किसी दूसरे व्यक्ति की आवाज समझ लेना आदि-आदि। ऐसी ही चंचलता के कारण व्यक्ति के समक्ष कोई अच्छी बात कहता है तो उसे बुरा लग जाता है। ये सब भ्रान्त-दर्शन संज्ञक विकार हैं जो मन की चंचलता के कारण उत्पन्न होते हैं।
8.   अलब्धभूमिकत्व—प्रयास करने भी इच्छित फल का न मिलना ही अलब्धभूमिकत्व है। जैसे, कोई विद्य़ार्थी बहुत श्रम करता है, फिर भी परीक्षा में अपेक्षित अंक नहीं ला पाता। यहाँ पर मानसिक स्थिति के भटकाव के कारण श्रम की दिशा धनात्मक नहीं हो पाती, क्योंकि वह विवेकजनित बुद्धि को तर्क-वितर्क में उपेक्षित कर बैठता है। यह भी विकृति है जो मन की चंचलता के कारण उत्पन्न होती है।
9.   अनवस्थितत्व—किसी एक स्थान या कार्य में ज्यादा देर मन नहीं लगना ही अनवस्थितत्व है। यह भी मन की चंचलता के कारण उत्पन्न विकृति है। 
      आधुनिक मनोवैज्ञानिक इन विकृतियों में से अधिकांश को मनुष्य की मूल-प्रवृत्ति बताते हैं और इसीरूप में उनकी व्याख्या करते हैं। उनके सिद्धान्त भले ही भौतिक धरातल पर या प्रत्यक्षरूप से सही दीखते हों, फिर भी वे ये नहीं जानते कि ये मनुष्य की मूल-प्रवृत्तियाँ नहीं, चंचल मन द्वारा विक्षेपित विकृतियाँ हैं, जिन्हें ध्यान आदि योग-साधनाओं से दूर किया जा सकता है।
रमाशंकर जमैयार


Saturday, August 20, 2011

धीरे-धीरे रे मना

आसन और ध्यान
 श्रुतियाँ कहती हैं कि मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः। अर्थात् मनुष्यों में मन ही बन्धन एवं मोक्ष दोनों का ही कारण है। श्रुति का यह वाक्य मनुष्य पर लागू होता है, किसी अन्य जीव या प्राणी पर नहीं, क्योंकि यहा मनुष्य (मनुष्याणां) का विशेष प्रयोग किया गया है। हम जानते हैं कि मनुष्य का मन बड़ा चंचल होता है। इस दृष्टि से देखा जाए तो मन की दो अवस्थाएँ होती हैं--चंचल और शान्त। चंचल मन को नियन्त्रित करके उसे शान्त अवस्था में लाया जाता है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि नियन्त्रित मन मोक्ष की ओर ले जाता है और अनियन्त्रित मन बन्धन में डाल देता है। इस श्रुति-वाक्य में एक और संदेश छिपा हुआ है। वह यह कि अनेकानेक प्राणियों (जीवों) में मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी हैं, जिसमें मन पर नियन्त्रण करने की क्षमता है। इस क्षमता को विकसित करने के लिए ऋषियों ने जिस विद्या और तकनिक की स्थापना की, उसी का नाम योग है—योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।(योगदर्शन, 1/2)।। अर्थात् चित्त (मन) की वृत्तियों का निरोध (रोकने की क्षमता प्राप्त करना) ही योग है। महर्षि पातञजलि बताते हैं कि चित्त की वृत्तियों के निरोध से आत्म-स्वरूप का ज्ञान हो जाता है--तदा द्रष्टु स्वरूपेवस्थानम्।।(योगदर्शन,1/3)।। यही मोक्ष की अवस्था है। अतः, हम कह सकते हैं कि योगविहीन मनुष्य बन्धन में पड़ा रहता है। योग की विद्या और तकनिक को अपना कर वह बन्धन से मुक्ति (मोक्ष) भी प्राप्त कर सकता है। इसलिए यह समझ लिया जाना चाहिए कि मनुष्यरूप में मिले इस जीवन को सार्थक बनाने के लिये योग-विद्या ही मूलभूत आधार है। भारत के प्राचीन परम्पराओं में मनुष्य को उसके शैशव काल से ही थोड़ा-थोडा करके उम्र के अनुसार योग की तकनिक सिखायी जाती थी जिसे संस्कार का नाम दिया जाता है। बाद में इसका विस्तृत स्वरूप गुरुकुलों में विद्याध्ययन के दौरान सिखाया जाता था। यह विद्या कोई कहानी नहीं कि इसे पढ़ा और समझ लिया। योग की कोई पुस्तक पढ़ लेने मात्र से योग-विद्या में निपुणता नहीं आ सकती, यह विज्ञान है। इसलिए, यह समझना भी आवश्यक है कि जैसा बताया जा रहा है, वैसा क्यों होता है? तब ही यह विद्या भली-भाँति समझ में आएगी और इसके तकनिकी पक्ष पर विश्वास जमेगा। यही कारण है कि इसे घूँट-घूँट कर समझना और हृद्यंगम करना पड़ता है। हर तकनिक की सूक्ष्मता को अभ्यास द्वारा भी समझ-समझ कर आगे बढ़ना पड़ता है। आज के दौर में योग-साधना की जानकारी देने वाले कई हैं और अच्छी जानकारी देते भी हैं, लेकिन इसके आध्यात्मिक रहस्यों की वैज्ञानिक व्याख्या नहीं कर पाते। कारण यह है कि प्राचीन ग्रन्थों की शैली आज की वैज्ञानिक शैली से भिन्न है। इस कारण उस शैली में लिखित वैज्ञानिक विवरणों को आधुनिक शैली के अनुरूप समझने और समझाने की कला विकसित करने की आवश्यकता है। इस ब्लॉग के माध्यम से हम इसका प्रयास करेंगे। इस क्रम में योग के तकनिकी पक्ष की जानकारी भी क्रमवार सहज से मध्यम एवं कठिन के क्रम में धीरे-धीरे एवं घूँट-घूँट के क्रम में चलना उचित रहेगा। (1) आसन आसन भी अपने आप में योग है। फिर भी, इसका तात्पर्य इस प्रकार बैठना है कि रीढ़ की हड्डियाँ तनी रहें, शरीर सीधा रहे और हम आराम से बैठकर कुछ देर तक साधना कर सकें। हम पाश्चात्यवादी सुख-सुविधाओं के आदि हो चुके हैं। आदत है कुर्सी पर बैठकर पैर लटका कर रखने की। इसलिए पाल्थी मारकर भी अधिक देर बैठने से पैर में तकलीफ होने लगती है। ऐसी स्थिति में बैठने के सरलतम आसन से प्रारम्भ करेंगे। सिद्धासन योग-साधना के लिए बैठने का सहज आसन सिद्धासन है। नाम से ही यह सिद्धियों का आसन है, इसलिए इसकी महत्ता बहुत बड़ी है। इसके क्लिष्ट और सहज दो रूप हैं। इसलिए पहले सहजरूप से आरम्भ करें। विधि दोनों पैरों को सामने फैलाकर बैठ जायें। बायें पैर को घुटने से मोड़कर, इसकी एड़ी (सुप्ती) को दाहिने पैर की जाँघ-मूल से सटायें। इसी स्थिति में दायें पैर को को घुटने से मोड़कर उसकी एड़ी (सुप्ती) बायें पैर पर रखें। यह सिद्धासन का शास्त्रीय स्वरूप तो नहीं है, फिर भी यह सद्धासन ही है और उसी का सहजरूप है—इसमें शंका की कोई आवश्यकता नहीं। क्योंकि, योग का पहला नियम है कि धीरे-धीरे ही कठिन योग की ओर बढ़ना उचित होता है। (2) ध्यान जैसा कि ऊपर कहा गया है कि योग का आधारभूत लक्ष्य मन को नियन्त्रित करना है। इसकी प्राथमिक तकनिक है--ध्यान को एकाग्र करना। आँखों को जब हम किसी एक विन्दु पर टिकाकर कुछ देर रखते हैं तो इसे ध्यान को एकाग्र करने की सहज तकनिक कह सकते हैं। तीरन्दाज या बन्दूक के निशानेबाज पर लक्ष्य-विन्दू पर आँखे जमाते हैं और सन्धान करते हैं। एकाग्रता जितनी अधिक होगी, सन्धान उतना ही पूर्ण होगा। योग-विद्या में भी यही तकनिक अपनाई जाती है। इस तकनिक की जानकारी देते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—समं कायाशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः। सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।।(गीता,6/13)।। अर्थात्, शरीर (काया), सिर और ग्रीवा (कायाशिरोग्रीवं) को एक सीध में स्थिर रखते हुए (धारयन्नचलं स्थिरः), दृष्टि को नासिकाग्र पर इस प्रकार एकाग्र करना चाहिए (सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं) कि आँखें दूसरी अन्य दिशाओं में नहीं देख सकें (दिशश्चानवलोकयन)। तात्पर्य यह है कि मन को नियन्त्रित करने के लिए नासिकाग्र पर दृष्टि एकाग्र करने का अभ्यास किया जाना चाहिए। यह विधि स्वयं भगवान श्रीकृष्ण द्वारा बताई गई है, इसलिए इसपर किसी प्रकार की शंका की आवश्यकता ही नहीं है। अतः, हम उन पाठकों से जो योग-साधना को सीखना चाहते हैं, अनुरोध करना चाहेंगे कि ऊपर बताये सिद्धासन के सहज स्वरूप को ग्रहण कर शरीर, ग्रीवा एवं सिर को एक सीध में रखकर नासिकाग्र पर दोनों आँखों से देखने का अभ्यास करें। कितने समय तक ऐसा करना है, यह साधक के विवेक पर छोड़ा जा सकता है। इन्द्रियों (यहाँ पर आँखें) कितनी देर तक सहज रूप से अनुशासन सह पायेंगी, इसे भाँपने का प्रयास साधक को ही करना चाहिए। आरम्भ में दस मिनट तक नासिकाग्र पर दृष्टि जमायें। फिर हल्के से पलकें बन्द कर विश्राम दें आँखों को। चाहें तो फिर अगले दस मिनट के लिए इसे दुहरायें। इस अभ्यास को सुबह और शाम करें और नियमितरूप से प्रतिदिन करने की निरन्तरता कायम करें। निरन्तरता रखने से अभ्यास का काल क्रमिक रूप से बढ़ने की शक्ति मिलती जाएगी। (3) उदर (पेट) की स्थिति इस प्रकार के ध्यान में जब बैठते हैं तो पेट (उदर) को अन्दर की ओर खींच कर रखने का अभ्यास भी कर सकते हैं, क्योंकि अन्ततः इस स्थिति को प्राप्त करना ही होगा। यह स्वयं में योग की उत्तम तकनिक है जिसके अनेकानेक लाभ हैं। इस पाठ के अन्त में हम पुनः दुहरायेंगे कि योग-साधना करें तो नियमित रूप से प्रतिदिन करें एवं इसकी निरन्तरतता बनाये रखें। रमाशंकर जमैयार